Monday, December 28, 2009

Happy New Year


नया साल आ रहा है... २००९ अलविदा कहने को तैयार हो चूका है... बहुत कुछ है जो हमने इस साल पाया और बहुत कुछ खोया भी होगा... कई खुशियों के दिन साथ होंगे तो कई दिनों ने रुलाया भी होगा... हर साल की तरह इस साल ने भी बहुत कुछ सिखाया होगा.... बस आने वाले साल २०१० के लिए मिलकर दुआ करते है कि सबके लिए खुशियों से भरा हो... गम की थोड़ी परछाई भी साथ हो क्योंकि गम के बिना खुशियों का कोई मोल नहीं... आप सबके लिए दुआ करता हूँ आने वाला साल आप सबके लिए मंगलमय हो, आपको नयी मंजिलें दिलाये और और नए मुकाम दिलाये... आप सबको मेरी तरफ से नए साल की हार्दिक सुभकामनायें... A very very Happy New Year....

Abhishek Prasad
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Tuesday, November 24, 2009

मंदिर या मस्जिद

लिब्राहन रिपोर्ट... मुझे नहीं पता क्या है ये लिब्राहन रिपोर्ट. और मैं जानना भी नहीं चाहता. कल से सुन रहा हूँ. हर न्यूज़ चैनल पर बस यही एक खबर है. खैर कुछ बातें है जो मैं आप सबसे पूछना चाहता हूँ. हर भाजपाई से, हर कॉंग्रेसी से, हर धर्म के ठेकेदारों से, हर उद्योगपतियों से, हर लोगों से जो इस देश में रहते है. मैं सबसे बस एक सवाल करना चाहता हूँ.
सन १९९२ में कुछ आपराधिक तत्त्व के बहकावे में आकर अनपढ़ और नासमझ लोगों ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया. बुरा हुआ था उस दिन, बहुत बुरा. हर धर्म के लोगों के लिए ये शर्म की बात है कि किसी धर्म-स्थल को हजारों लोग तोड़ देते है. मुस्लिमों की नाराजगी बिलकुल जायज भी है. मैं बहुत ज्यादा इतिहास में नहीं जाना चाहता. वरना लोग मुझे पढ़ने लग जायेंगे कि पहले वहां राम मंदिर हुआ करता था, अयोध्या राम की नगरी थी, वहां मंदिर गिरा कर मस्जिद बनाया गया था, वगैरह वगैरह.... मैं इन सबको मान भी लेता हूँ कि ऐसा हुआ होगा... तो इसका क्या मतलब कि जो उन्होंने किया वहीँ गलती हम भी करें???? आज हम वहां राम-मंदिर बना देते है, कल फिर कोई वहां मस्जिद बना देगा, फिर हम मंदिर बना लेंगे... आखिर कब तक ये सिलसिला चलता रहेगा?
कल माननीय आडवानी जी ने कहा, राममंदिर को बनते हुए देखना उनके जीवन की सबसे बड़ी साध है... मैं उनसे पूछना चाहूँगा क्या उनकी सबसे बड़ी साध ये नहीं होनी चाहिए कि हमारा देश में लोग भूखे न सोयें. हम लड़ रहे है वहां मंदिर बने या मस्जिद... हम इस बात पे क्यों नहीं लड़ते कि वहां बच्चों के लिए स्कूल या फिर बीमारों के लिए अस्पताल बनवा दिया जाये... अगर अयोध्या में मंदिर बन गया तो मुसलमान भाइयों को क्या फायदा होगा? और अगर वहां दुबारा मस्जिद बन गया तो उससे हिन्दू समुदाय को क्या फायदा होगा? क्या हम कोई ऐसा उपाय ढूंढने में अक्षम है जिनसे दोनों को फायदा हो? क्यों नहीं हम उस विवादित भूमि पर स्कूल, कॉलेजे या फिर अस्पताल बनवा दें? इससे सबको फायदा होगा....
हम दिल्ली में अक्षरधाम मंदिर बनवाने में करोड़ों खर्च कर सकते है, हम करोड़ों रुपये का सिंघासन बनवा सकते है, हम लाखों-करोड़ों रूपये एक मुकुट बनवाने में खर्च कर सकते है, हम हर-साल अरबों रुपये दुर्गापूजा, दसहरा, गणपति आदि पर खर्च कर सकते है... पर हम लोगों के उत्थान के लिए, गरीबों की भूख के लिए, बेसहरा बच्चों के घर के लिए कुछ नहीं कर सकते. हम बस लड़ सकते है मंदिर बने या मस्जिद के नाम पर. दंगे होते है इस बात के लिए, कत्ले-आम होता है धर्म के नाम पर... पर आज तक मैंने बुनियादी सुविधाओं के लिए लड़ते हुए किसी को नहीं देखा.
मैं जीवित हर इंसान से आज पूछना चाहता हूँ... उन्हें अयोध्या में मंदिर चाहिए या मस्जिद....?
मैं कुल ७ ब्लोगों पर लिखता हूँ. और ये पोस्ट मैं सब पर तो नहीं पर चार ब्लोगों पर पोस्ट कर रहा हूँ. मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुचाना चाहता हूँ. उम्मीद करूँगा आप लोग भी मेरी मदद करेंगे. मैं किसी भी धर्म के लोगों के आस्था और विश्वास को ठेष नहीं पहुचाना चाहता हूँ. अगर ऐसा होता है तो मैं आप सबसे माफ़ी की उम्मीद करूँगा.

Tuesday, November 17, 2009

क्या मैं सचमुच पागल हूँ???


मैं पागल हूँ. हाँ शायद मैं सचमुच पागल हूँ, नहीं तो वो आखिर ऐसा क्यों कहती. वो अक्सर कहती है, "तुम बिलकुल पागल हो." अगर वो कहती है तो निश्चित मैं पागल ही होऊंगा. वरना मुझे पता है वो ऐसा नहीं कहती. आखिर कोई किसी को यूँ ही पागल थोड़े ही कहता है. अब मैं सामने खड़े कुत्ते को कुत्ता कह रहा हूँ, इसलिए न कि वो सच में कुत्ता है. तो वो मुझे पागल कहती है मतलब मैं सच में पागल हूँ. फिर मुझे बुरा क्यों मानना चाहिए? नहीं-नहीं मैं बुरा नहीं मान रहा. मैं क्यों बुरा मानूँ? कहीं पागल भी बुरा मानते है क्या? नहीं न?

बस मैं भी बुरा नहीं मानूंगा. आखिर पागल ही तो कहती थी वो. हो सकता है प्यार से कहती हो. आखिर प्यार से हम भी तो किसी को गधा और उल्लू कह देते है तो इसका मतलब थोड़े कि वो गधा या उल्लू हो गया. तो वो अगर प्यार से मुझे उल्लू कहती है तो मुझे क्यों बुरा लगेगा. वो मुझे प्यार से कुछ भी कह सकती है. आखिर मैं भी तो उससे प्यार करता हूँ. लेकिन वो तो मुझसे प्यार नहीं करती फिर उसे क्या हक है मुझे प्यार से पागल कहने का? नहीं-नहीं उसे हक़ नहीं है. वो ऐसे कैसे मुझे पागल कह सकती है? क्या मैंने कोई पागलों वाला काम किया है क्या? मैं कोई पागल हूँ क्या? उसे कोई हक़ नहीं है. पर मैं तो उससे प्यार करता हूँ, क्या हो गया अगर वो नहीं करती है प्यार मुझे. मेरे लिए तो वो सबकुछ है. आखिर मैं उसे हक़ नहीं दूंगा तो और किसे दूंगा?

और पागल सुनने में कुछ खराबी थोड़े ही है. किसी के पागल कहने से कोई पागल थोड़े ही हो जाता है. वो पागल कहती है इसलिए न कि मैं उससे प्यार करता हूँ जबकि वो कई बार मुझे समझा चुकी है. तो ठीक ही तो है, अब वो मना कर चुकी है और फिर भी मैं उसे प्यार करता हूँ तो पागल ही कहेगी न. ये भी कोई बात हुई कि एक नजर देखा और प्यार हो गया. फिर हो गए पागल उसे दुबारा देखने के लिए. कर लिए उसी रास्ते पर लगातार तीन दिनों तक पागलों की तरह इन्तेजार. अरे वो तो किस्मत अच्छी थी तब न वो घर के सामने वाले ही घर में मिल गयी और दोस्ती भी हो गयी. वरना घूमता रहता, खोजता रहता पागलों की तरह उसे जिंदगी भर. इतनी अच्छी दोस्त बन गयी तो वो. अच्छी-खासी दोस्ती चल रही थी. फिर क्या जरूरत थी पागलपन करने की? क्या जरूरत थी उससे अपने प्यार का इजहार करने की? आखिर कितने दिन ही हुए थे उसके साथ दोस्ती को? यही कोई लगभग डेढ़ साल... बस. इतने में ही हो गए पागल और लगा ली अपनी दोस्ती में आग. अब वो तो पागल है नहीं, दोस्ती न तोड़ती तो और क्या करती? और फिर उसकी भलमनसाहत मानो जो दो सालों के बाद उसने दुबारा मुझे माफ़ कर दिया और फिर से दोस्ती की शुरुआत कर दी.

और मैंने क्या किया? फिर उसका दिल दुखाया. माना कि अनजाने में हुई थी वो गलती पर क्या जरूरत थी मुझे पागलपन करने की? क्या सीधे इंसान की तरह नहीं जी सकता था. लेकिन अनजान गलती ही तो थी. और इतनी बड़ी गलती भी तो नहीं थी जिसके लिए वो मुझे इतनी बड़ी सजा दे. पर आखिर पागलों की तरह मैंने ही तो SMS भेजा था. और उसे भेजता तो कोई बात नहीं थी, उसके दोस्त को क्यों भेजा? पागल हो गया था क्या उस वक़्त? लेकिन ऐसा भी तो कुछ नहीं था उस SMS में जिससे बुरा माना जाये. दिल्ली बोम्ब ब्लास्ट हुआ था. उसका कुशल-छेम तो पूछा था मैंने सबसे. अब चिंता तो अपनों की होती ही है न. और मैंने तो Send to All आप्शन use किया था. अब उसकी दोस्त का भी नंबर था मोबाइल में तो उसे भी चला गया. और माफ़ी मांग तो ली थी मैंने. पर सिर्फ माफ़ी से क्या होता है? पागल होने के लिए किसने कहा था? क्या मैसेज भेजने से पहले अपना contact list चेक नहीं कर सकता था. पर मेरे contact में तो ५०० से ज्यादा लोग है. कितना चेक करता रहता? भेज दिया सबको. तो किया न पागलों वाला काम. तो सजा तो भुगतनी पड़ेगी न.

अरे ये क्या, मैं खुद को ही पागल कह रहा हूँ? उफ़ क्या हो गया है मुझे? वो कहती थी पागल तो ठीक था, पर मैं खुद को क्यों पागल कह रहा हूँ? मैं क्यों कह रहा हूँ? क्या मैं सचमुच पागल हूँ???

Tuesday, October 27, 2009

क्या है औरत?

औरत.... क्या है औरत?
जन्म के समय जिसे न वो प्यार मिले,
जिसे दो वक़्त कि रोटी भी उधर मिले,
जो भाइयो के लिए अपनी पढाई का त्याग करे,
माँ-बाप के वात्सल्य का जो इन्तेजार करे... वही है औरत
 
जिसकी उम्र के साथ लोगों कि निगाहें बढ़ने लगे
हर चौक से गुजरने में जिसे डर लगने लगे
हर अजनबी को देख जिसकी धड़कने बढ़ने लगे
जो घर में भी सुरक्षित न महसूस करे... वही है औरत
 
जिसे पेट भरने कि खातिर अपनी देह बेचनी पड़े
जिसे हर बात पर पुरुषों के जुल्म सहने पड़े
जिसे सबके साथ भी अकेले रहना पड़े
जो कभी अपना दुःख किसी से न कह सके... वही है औरत
 
और आज की औरत पर एक नजर....
जिसके १०-१२ प्रेमी हो और उसके नखरे सहे
जिसके शादी के बाद भी एक दो प्रेम-सम्बन्ध रहे
जिसकी हर बेजरूरत चीजों के लिए  उसका पिता फिर पति सहे
जो किटी पार्टी में बैठ ससुराल की बुराई करे
जिसे बच्चे बिगड़ रहे है इसका ध्यान न रहे
जिसे घर कि किन्ही बातों का ज्ञान न रहे... वो भी है औरत... 

Friday, October 23, 2009

God makes everything RIGHT

मैं कभी मंदिर, मस्जिद या गिरजा नहीं जाता (श्रधा से, घुमने कई बार गया हूँ.) कभी उसके सामने मेरे हाथ नहीं जुड़े या सिर नहीं झुका जिसे लोग भगवान या उपरवाला कहते है. किसी धर्म और धर्म गुरु कोई नहीं मानता मैं. मुझे भगवान, कोई तीसरी ताकत, आदि ऐसी बातों पर बिलकुल विश्वास नहीं. पर ये सब कल तक की बातें थी. आज मैं शायद दुनिया का सबसे बड़ा आस्तिक हूँ. भगवान के अस्तित्व को मानने लगा हूँ मैं आज से. ऐसा कोई अचानक नहीं हो गया. कई सारी बातों और घटनाओं ने मुझे विश्वास करने पर मजबूर कर दिया है मुझे. मेरे ब्लॉग का शीर्षक देखकर ही आप सब लोग मेरी भावनाओं को समझ रहे होंगे. पर सवाल ये है कि मेरी २५ साल की जिंदगी में आज ऐसा क्या हो गया जो मैं भगवान के वजूद को मानने पर मजबूर हो गया.

लोगों के साथ बुरा होते तो आप लोगों ने भी देखा होगा, पर क्या बुराई कि हद देखी है? चलिए मैं आपको दिखता हूँ.... मिलवाता हूँ अपने एक मित्र से जिसके कारण मैं आज भगवान को मानने के लिए मजबूर हूँ.

ये छोटी सी तो नहीं पर बहुत बड़ी कहानी भी नहीं है. ओह ये कहानी नहीं हकीकत है. हकीकत मेरे दोस्त अविनाश (काल्पनिक नाम) की.... अविनाश के बारे में बहुत कुछ तो नहीं बता सकता (नहीं तो मेरा ये पोस्ट लम्बा हो जायेगा) सीधे-सीधे मुद्दे की बात पर आता हूँ. अविनाश जिसके साथ कभी अच्छा होते मैंने कभी नहीं देखा. बचपन में कई सारी पारिवारिक परेशानियाँ थी उसके जिसका नतीजा ये था कि उसने १३ साल की उम्र से ही शराब और सिगरेट को अपना सबसे करीबी दोस्त बना लिया (मुझसे भी ज्यादा). शतरंज और क्रिकेट में महारत हासिल थी उसे. पेंटिंग बनता तो लगता जैसे किसी ने डिजीटल कैमरा से फोटो खिंचा है. पर कहते है न सिर्फ कला और हुनर सब कुछ नहीं होती, किस्मत भी जरूरी है. उसके साथ भी कुछ ऐसा ही था. जब १०वि में था उसे उसकी पेंटिंग की एक्सिबिशन लगाने का कोलकाता से बुलावा आया था, पर उसके पिता के लिए उसकी बोर्ड की परीक्षा ज्यादा जरूरी थी. इसका नतीजा ये था अविनाश ने हमेशा के लिए ब्रश उठाने से मना कर दिया. २ साल के बाद उसके क्रिकेट शौक ने उसे स्टेट लेवेल की टीम तक पहुँचाया पर कमबख्त फिर वही एक्साम... इस बार उसकी १२वी का एक्साम तो सामने था पर परिवार का साथ नहीं. वैसे उसने क्रिकेट छोडा तो नहीं मोहल्ले लेवल तक खेलता रहा. हाँ फिर कभी उसे आगे बढ़ने का मौका भी नहीं मिला.

अविनाश की एक बहुत अच्छी दोस्त भी हुआ करती थी जिसे वो अपने शराब, सिगरेट और खुद से भी ज्यादा चाहता था (ये चाहत दोस्ती की चाहत ही थी, ज्यादा सोचने की जरूरत आप लोगों को नहीं पड़ेगी) उसकी दोस्त ने भी उसका हर वक़्त साथ दिया पर फिर वही किस्मत... एक बड़ी बीमारी के कारण उसकी दोस्त उसे हमेशा के लिए छोड़ कर भगवान के पास चली गयी और उसे छोड़ गयी अकेला. (वैसे उसके पास हम भी थे पर वो हमें उतना अपना नहीं मानता था जितना अपनी शराब और सिगरेट को). अविनाश एक लड़की से प्यार भी करता था.... सॉरी करता है. पर फिर वही उसकी बुरी किस्मत, वो जितना उससे मोहब्बत करता है वो लड़की उससे उतनी ही ज्यादा नफरत. कबी वो दोनों एक दुसरे के अच्छे दोस्त हुआ करते थे पर जैसे ही एक दिन अविनाश ने उस लड़की को अपनी दिल की बात बताई सब कुछ बदल गया. सारी दोस्ती ख़त्म हो गयी और अविनाश उस लड़की के लिए सबसे बुरा इंसान बन गया.

ये तो कुछ बड़े उदहारण थे (जैसा अविनाश कहता है) मैंने उसे हर दिन अपनी जिंदगी और अपने हालात से लड़ते, जूझते और फिर हर शाम हारते और टूटते हुए देखा है. इन सब के बावजूद लोगों ने कभी उसे उदास नहीं देखा. हमेशा हमने उसे उसकी जिंदगी जीते हुए ही देखा है. पर जो अभी दो दिन पहले हुआ उसके साथ उसके बाद तो मुझे भी लगता है कि इससे ज्यादा बुरा किसी के साथ कुछ और नहीं हो सकता.

अविनाश ने अपनी जिंदगी को हर पल लड़ा. उसका सपना था मालिक बनाने का न कि किसी और की कंपनी में कोई नौकर (मतलब उसे नौकरी करना पसंद नहीं था फिर भी करता था. पापी पेट का भी तो सवाल है) लगभग ४ साल की नौकरी के बाद उसने अपनी एक छोटी सी कंपनी की शुरात इसी दिवाली की. ये सोंच कर कि इस पावन मौके पर लक्ष्मी पूरी दुनिया को छोड़ कर सिर्फ उसके पास आएगी (पर उसे मालूम नहीं था उसके साथ थी उसकी बुरी किस्मत). कंपनी खोलने के सिर्फ ४ दिन बाद परसों रात उसकी कंपनी में उसकी बुरी किस्मत ने आग लगा दी. लगभग ८ लाख रुपये का उसका ऑफिस ८ मिनट में भगवान को प्यारा हो गया (शायद भगवान को एक ऑफिस की जरूरत होगी और उसका नया ऑफिस उन्हें पसंद आया होगा. आखिर दिवाली के दिन उसने शुरआत भी तो की थी).

अब इतना कुछ होने के बाद कैसे भगवान पर विश्वास न करूँ मैं? और अब ऐसे भी उसकी बुरी किस्मत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती (बिगाड़ने के लिए उसके पास अब बचा ही क्या है). एक ऐसा व्यक्ति जिसने कभी सपने में किसी के लिए बुरा नहीं सोंचा. उसके साथ इतना बुरा होना क्या कोई तीसरी ताकत नहीं है? एक ऐसा व्यक्ति जिसने हमेशा दूसरो की मदद की उसके साथ इतनी घटनाएं क्या ये नहीं कहती कि भगवान का वजूद है इस दुनिया में? अब कैसे आखिर में भगवान के अस्तित्व को नकार दूँ?

मैं तो धन्यवाद देना चाहूँगा उपरवाले को जिसने मुझ नास्तिक को आस्तिक बनाने के लिए इतना कुछ किया. कहते हैं न भगवान जो करते है अच्छा करते है.... GOD MAKES EVERYTHING RIGHT....

Saturday, October 17, 2009

मजबूर है

कलम चलने को आज फिर,
शब्द मचलने को आज फिर मजबूर है
इस दप्ती दोपहरी में,
बारिश बरसने को आज फिर मजबूर है
सो चुके थे अरमान सारे,
जिंदगी भी थम चुकी थी
मौत के कई दिनों के बाद
ये दिल आज फ़िर जीने को मजबूर है....

Thursday, September 3, 2009

बात लोगों के विश्वास की – अंधविश्वास की

अभी कुछ दिनों से मेरी तबियत खराब चल रही थी. ज़ाहिर सी बात है इलाज भी करवाया ही होगा मैंने. अब ठीक भी हो गया हूँ पर doctor uncle के इलाज से नहीं (uncle sorry बिलकुल सच कह रहा हूँ) बल्कि भगवान के आर्शीवाद से. अर्रे विश्वास नहीं हो रहा, बिलकुल सच कह रहा हूँ मैं, मेरी माँ यही कहती है. वैसे भी झूठ बोलना थोडा पसंद नहीं करता न मैं.

अब हुआ यूँ कि मेरी तबियत खराब हुई तो माँ ने अपने इलाज भी शुरू कर दिए. पहुँच गयी एक jewelry shop और बनवा लायी मेरे लिए सोने का हनुमान (अब उसका मूल्य नहीं बताऊंगा, भाई किसी ने अगवा कर लिया मुझे तो?). हाँ तो जैसा कि माँ ने मुझे बताया कि इस लोकेट को पहनने से मेरी सारी तकलीफें दूर हो जाएँगी. हुआ भी कुछ ऐसा ही 3 दिनों के बाद ही मैं क्रिकेट खेलने लायक हो गया. अब देखिये 7 दिनों से doctor uncle की दवा खा रहा था पर ठीक हुआ हनुमान जी की कृपा से. धन्य हो प्रभु, धन्य हो.

अब ये चमत्कार हुआ तो, पर मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहा. कर भी नहीं सकता. जब भगवान नाम की किसी चीज़ पर विश्वास नहीं तो इन सब बातों पर विश्वास का सवाल ही उत्तपन नहीं होता.

अब भाई आप लोग ही मुझे समझाए कि कैसे एक सोने का लोकेट पहनने से या कोई अंगूठी धारण करने से कोई तकलीफ दूर हो सकती है. और अगर होती है तब तो मैं और भी भगवान को न मानूंगा. क्योंकि ऐसे भगवान का क्या फायदा जो अपने बच्चो की तकलीफों का निवारण तभी करते है जब उनके नाम का लोकेट, ताबीज या कोई अंगूठी पहनी जाये. उनके नाम का सिन्दूर लगाने से, या फिर कोई भभूत खाने से अगर problem दूर होने लगते तो फिर मैं खामख्वाह में घर से इतनी दूर अकेले रहता हूँ (जिस दर्द का वर्णन मैंने अपने पिछले पोस्ट में किया था).

कुछ लोग palmistry, numerology, kundali और न जाने किस किस पर भी भारोषा करते है. अब आज तक मैंने हाथ देखने वालों को अपना भविष्य देखते हुए नहीं देखा. और अगर वो हाथ पढ़ते है तो जब मैंने आज से लगभग 2 साल पहले अपना हाथ उन्हें अपने एक दोस्त की जिद पर दिखया था तो उन्होनो मुझे बताया क्यों नहीं कि मैं बीमार होने वाला हूँ, या फिर मेरा एक्सीडेंट होने वाला है (लगभग 15 महीने पहले मेरा एक एक्सीडेंट हुआ था).

Numerologist सलाह देते है कि नाम में letters की फेर-बदल कीजिये और अपना भाग्य बदल लीजिये. अब ये कौन मुझे समझायेगा कि मुझ हिन्दुस्तानी, जन्म से बिहारी और धर्म से हिन्दू व्यक्ति के नाम के "ENGLISH" letters में बदलाव करने से कैसे भाग्य बदल सकता है. एक और सज्जन ने कहा था "हँसता हुआ बुध", बांस का पेड़ और न जाने कितने अनगिनत सामान रखने से भी मेरे वैभव में अंतर आएगा. कुछ हो या न हो इतना तो पता है इतना कुछ खरीदने के बाद मेरे बैंक अकाउंट में जरूर अंतर आएगा.

हाँ एक बात और याद आई एक और सज्जन ने मुझे एक दो अंगूठियाँ पहनने को कहा था. अब मैं तो चलो पहन लूँ और अपना भाग्य बदल लूँ पर अपने देश के उन 15 करोड़ लोगों के भाग्य का क्या जिन्हें एक वक़्त का रोती भी नहीं मिलता. खैर समझ में आ गया हमारे देश में गरीबी का कारण, लोग न अंगूठी पहनते है, न लोकेट, नाम का letter भी नहीं बदलते. देश से तो मतलब ही नहीं रहा. सिर्फ गरीबी बढ़ने में लगे रहते है. पता नहीं कब सुधरेंगे मेरे देश के गरीब लोग.

मैं तो सरकार से अपील करूँगा कि एक कानून बना दिया जाये कि देश के हर लोगों को सोने का लोकेट, अंगूठी, कोई बांस का पेड़, कोई बुध (रोता हुआ या हँसता हुआ कोई भी), नाम का letter बदलना... वैगरह जरूरी है  अथवा ऐसे लोगों को देश निकाला दिया जाये. हाँ पर एक problem है कानून बन गया तो सबसे पहले देश से बहार मुझे जाना पड़ेगा, अब मैं ये सब मानता भी तो नहीं. क्या करूँ मान सकता भी तो नहीं. अब आप लोग ही मुझ नासमझ को कुछ समझाइये. समझायेंगे न???

Friday, August 21, 2009

ज़रा सोंचिये... आपका आँगन भी सुना है?

बहन सोनल के ब्लॉग पर उनकी लिखी कविता "सुनी कलाई" पढ़ी. कहीं न कहीं मेरे मन को कहीं अन्दर छू गई और मुझे भी लिखने को मजबूर किया।
 
क्यों आज अकारण ही आज एक घर के कई सारे घर होते जा रहे है? क्यों आज हम अकेले तन्हा रहने को मजबूर है? क्यों हर त्यौहार सुना-सुना गुजर जाता है? क्यों राखियों पर बहने भाई को सिर्फ याद ही कर पति है? जवाब तो नहीं है मेरे पास इन सवाल का बस कुछ मन की भडास है जो निकाल दिया मैंने आप लोगों के सामने. मार्ग-दर्शन जरूर कीजियेगा... पढने के लिए यहाँ क्लिक करें...

Thursday, August 20, 2009

उधार की जिन्दगी

हर बात कुछ याद दिलाती है....
हर याद कुछ मुस्कान लाती है....
कौन नहीं चाहता खुशियों को पास रखना अपने...
पर कहाँ वो हर पल साथ रह पाती है.....

समय का आभाव भी बहुत है जिन्दगी में....
भूल गए पलों को पैसो की बंदगी में.....
पर साथ तो अतीत का भी चाहिए...
और कम समय और शब्द कम है जिन्दगी में.....

रात से कुछ पल उधार ले....
कोशिश की रहने की उधार ले.....
जो दिन भर की जद्दोजहत के बाद बचे....
बनी उनसे कविता शब्द उधार ले......

ज़रा सोंचिये.... भूखे पेट भजन नहीं होती

दो दिनों पहले मैंने अपने ब्लॉग "कुछ बात" पर लिखा था "बिना तिरंगे की स्वतंत्रता"... भाई इंदर ने सबसे पहले अपने बहुमूल्य विचार दिए और मुझे बताया कि "भूखे पेट न भजन होती है और न देश-भक्ति". बस बात मेरे दिल को छू गयी और बैठ गया लिखने उनके समर्थन में और अपना एक नया विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ.

आंकडों पर अगर गौर करूँ तो अपने देश में सबसे ज्यादा मोबाइल और फ़ोन का इस्तेमाल साल के पहले दिन अर्थात नए साल पर होता है, फिर वैलेंटाइन डे, क्रिस्त्मस (जबकि देश में इसाईओं कि संख्या नगण्य है. क्रिसमस हमारे देश में क्रिस्चन से ज्यादा हिन्दू मानते है), मदर डे, फादर डे, रोज़ डे, फ्रेंडशिप डे और न जाने कौन कौन से डे पर होता है. हर साल मोबाइल कंपनियां इस दिन SMS और कॉल से अरबों का कारोबार करती है. न्यू इयर आ रहा है हम रात के बारह बजे से ही लग जाते है एक दुसरे को सन्देश भेजने में, बधाई देने में... वैलेंटाइन डे है और अपनी प्रेमिका को सबसे पहले सुभकामना न दी तो समझो हो गयी सामत, अपने माता-पिता का जन्मदिन याद हो न हो हमें फादर डे और मदर डे जरूर याद रहता है. अब इन सब भूखे पेट वालों से पूछना चाहूँगा स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस पर कीटों को बधाई सन्देश भेजते है??? सन्देश तो छोड़ देता हूँ अपने ही घर में कितनो को सुभ्कम्मना देते है??? ओह बेचारे कहाँ से बधाई देंगे इन्हें उसी समय भूख जो लग आती है...

हर साल हमारे देश में अरबों-खरबों रुपये खर्च होते है धर्म के नाम पर. कभी गणपति होती है तो कभी दही-हांडी. फिर दशहरा, दुर्गा पूजा दिवाली, ईद, छठ, और न जाने कितने अनगिनत पर्व त्यौहार. सब लोग हर्षो-उल्लास के साथ इन सब पर्वों को मानते है. दिल खोल कर हम पुरे देश के भूखे लोग खर्च करते है पर जब बात देश के महापर्व कि आती है तो कमबख्त ये भूखा पेट.

रोज न जाने कितने ही लोग कितने ही रुपयों का सदुपयोग सिगरेट, शराब, गुटका जैसी चीजों के लिए खरीदते है पर जब स्वतंत्रता दिवस के दिन कोई छोटा बच्चा हमारे पास २ रुपये के छोटे-छोटे तिरंगे बेचने आता है हमें उसी वक्त अपने भूखे होने की याद हो आती है.

हम भूखे लोग कडोदों रुपये किसी मंदिर, मस्जिद, या फिर सिर्फ भगवान का मुकुट बनाने में खर्च देते है. बात आती है सिर्फ एक दिन तिरंगे को सलामी देने की हम भूख सताने लगती है.

हम भूखे पेट लोग.... लिखना तो और चाहता हूँ पर क्या करूँ अब मुझे भी लग आई है भूख...

सिर्फ एक गुजारिश है कृपया एक बार अब कोई भी काम करने से पहले सोंचियेगा कहीं हमारे भूखे पेट पर असर तो नहीं पड़ेगा न.... ढेर सारे पर्वो और डे मनाने से पहले सोंचियेगा कहीं इसे मनाने के चक्कर में हम भूखे तो नहीं रह जायेंगे...